श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी–७

संपादकजी लेखिका मात्र को प्रोत्‍साहित करते हैं ताकि हिंदी की मरुभूमि सरस होकर आबाद हो, इसलिए लेख या कविता के साथ चित्र भी छापते हैं। शास्त्रिणी जी को लिखा। प्रसिद्धि के विचार से शास्‍त्री जी ने एक अच्‍छा सा चित्र उतरवाकर भेज दिया। शास्त्रिणी जी का दिल बढ़ गया। साथ में उपदेश देने वाली प्रवृत्ति भी।

इसी समय देश में आंदोलन शुरू हुआ। पिकेटिंग के लिए देवियों की आवश्‍यकता हुई - पुरुषों का साथ देने के लिए भी। शास्त्रिणी जी की मारफत शास्‍त्री जी का व्‍यवसाय अब तक भी न चमका था। शास्‍त्री जी ने पिकेटिंग में जाने की आज्ञा दे दी। इसी समय महात्‍माजी बनारस होते हुए कहीं जा रहे थे, कुछ घंटों के लिए उतरे। शास्‍त्री जी की सलाह से एक जेवर बेचकर, शास्त्रिणी जी ने दो सौ रुपए की थैली उन्‍हें भेंट की। तन, मन और धन से देश के लिए हुई इस सेवा का साधारण जनता पर असाधारण प्रभाव पड़ा। सब धन्‍य-धन्‍य कहने लगे। शास्त्रिणी जी पूरी तत्‍परता से पिकेटिंग करती रहीं। एक दिन पुलिस ने दूसरी स्त्रियों के साथ उन्‍हें भी लेकर एकांत में, कुछ मील शहर से दूर, संध्‍या समय छोड़ दिया। वहां से उनका मायका नजदीक था। रास्‍ता जाना हुआ। लड़कपन में वहां तक वे खेलने जाती थीं। पैदल मायके चली गईं। दूसरे देवियों से नहीं कहा, इसलिए कि ले जाना होगा और सबके लिए वहां सुविधा न होगी। प्रात:काल देवियों की गिनती में यह एक घटी, संवाद-पत्रों ने हल्‍ला मचाया। ये तीन दिन बाद विश्राम लेकर मायके से लौटीं, और शोक-संतप्‍त पतिदेव को और उच्‍छृंखल रूप से बड़बड़ाते हुए संवाद पत्रों को शां‍त किया - प्रतिवाद लिखा कि संपादकों को इस प्रकार अधीर नहीं होना चाहिए।

आंदोलन के बाद इनकी प्रैक्टिस चमक गई। बड़ी देवियां आने लगीं। बुलावा भी होने लगा। चिकित्‍सा के साथ लेख लिखना भी जारी रहा। ये बिल्‍कुल समय के साथ थीं। एक बार लिखा, 'देश को छायावाद से जितना नुकसान पहुंचा है, उतना गुलामी से नहीं।' इनके विचारों का आदर नीम-राजनीतिज्ञों में क्रमश: जोर पकड़ता गया। प्रोग्रेसिव राइटर्स ने भी बधाइयां दीं और इनकी हिंदी को आदर्श मानकर अपनी सभा में सम्मिलित हाने के लिए पूछा। अस्‍तु शास्त्रिणी जी दिन-पर-दिन उन्‍नति करती गईं। इस समय नया चुनाव शुरू हुआ। राष्‍ट्रपति ने कांग्रेस को वोट देने के लिए आवाज उठाई। हर जिले में कांग्रेस उम्‍मीदवार खड़े हुए। देवियां भी। वे मर्दों के बराबर हैं। शास्त्रिणी जी भी जौनपुर से खड़ी होकर सफल हुईं। अब उनके सम्‍मान की सीमा न रही। एम.एल.ए. हैं। 'कौशल' में उनके निबंध प्रकाशित होते थे। लखनऊ आने पर 'कौशल' के प्रधान संपादक एक दिन उनसे मिले और 'कौशल' कार्यालय पधारने के लिए प्रार्थना की। शास्त्रिणी जी ने गर्वित स्‍वीकारोक्ति दी।

'कौशल' कार्यालय सजाया गया। शास्त्रिणी जी पधारीं। मोहन एम.ए. होकर यहां सहकारी है, लेकिन लिखने में हिंदी में अकेला। शास्त्रिणी जी ने देखा। मोहन ने उठकर नमस्‍कार किया। 'आप यहां', शास्त्रिणी जी ने प्रश्‍न किया। 'जी हां', मोहन ने नम्रता से उत्तर दिया, 'यहां सहायक हैं।' शास्त्रिणी जी उद्धत भाव से हंसी। उपदेश के स्‍वर में बोलीं, 'आप गलत रास्‍ते पर थे!'

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1 Comments

Punam verma

05-Jun-2023 09:52 AM

Nice

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